जाने मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी, दर्द, मोहब्बत और अनसुने किस्से | Jane Mirza Ghalib Shayari, Dard, Mohabbat Aur Ansune Kisse

Mirza-Ghalib-Shayari
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Introduction Mirza Ghalib Shayari

Mirza Ghalib Shayari की दुनिया के सबसे बड़े नामों में से एक है। हम सब ने उनका नाम और उनके शेर कई बार पढ़े होंगे। इश्क़ मोहब्बत दर्द अमीरी ग़रीबी, इंसान कि ज़िंदगी का ऐसा कोई भी पहलु नहीं, जिस पर मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी ना हो।

पर Mirza Ghalib Shayari के साथ साथ कुछ और बातों के लिए भी मशहूर थे, वो थे उनके किस्से। और वो इसलिए, क्योंकि वो किसी भी बात को सीधे ना कह कर, शायरी में बोल जाया करते थे। इसी वजह से उनके किस्से भी यादगार बन गए थे।

इस आर्टिकल में आप उनके जीवन से जुड़ी कहानियों और दिलचसप किस्सों के बारे में जानेंगे। पर उस से पहले उनकी जीवनी को संक्षेप में जान लेते हैं।

मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी | Mirza Ghalib Biography

मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू और फारसी के महान शायर थे। इनका पूरा नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान था। “ग़ालिब” इनका तख़ल्लुस था, या यूँ कह लें की यह इनका पेन नाम था, क्योंकि अपनी शायरी में ग़ालिब इसी नाम का प्रयोग करते थे।

मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 1796 को आगरा के एक सैनिक परिवार में हुआ था। उस समय ग़ालिब केवल 5 वर्ष के थे जब इनके पिता एक युद्ध में शहीद हो गए। उसके कुछ समय बाद इनके चाचा भी नहीं रहे। फिर ये अपनी माँ के साथ अपने ननिहाल में आ कर रहने लगे।

मिर्ज़ा ग़ालिब ने उर्दू और फ़ारसी की पढ़ाई की थी और कहते हैं की इन्होने 12 वर्ष की उम्र में ही शायरी में हाथ आजमाना शुरू कर दिया था। 13 वर्ष की उम्र में इनका निकाह उमराव बेगम से हो गया और निकाह के बाद यह दिल्ली आ गए और यहीं इनका बाकि का सारा जीवन बीता।

यह बहादुर शाह जफ़र के दरबार में दरबारी कवी थे। और शाही कवी ज़ौक के निधन के बाद बहादुर शाह ने इन्हे अपना शाही कवी बना दिया था।

मुग़ल सल्तनत के खात्मे के बाद, जब दिल्ली में अंग्रेज़ो का राज आया, तो इनको मिलने वाले वजीफे और दूसरे इमदाद बंद कर दिए गए। जिस वजह से इन्होने अपने आखरी वक़्त में बहुत ग़रीबी देखी थी।

अपनी शराब और जुए कि लत कि वजह से इनपे कर्ज़े भी इतने चढ़ गए थे कि जिन्हे ना चूका पाने कि वजह से इन्हे जेल भी जाना पड़ा था।

आखरी वक़्त में इनके पास अपना इलाज करवाने के पैसे भी नहीं थे और 15 फरवरी 1869 को इनकी दिल्ली में ही मृत्यु हुई थी।

मिर्ज़ा ग़ालिब का व्यक्तिगत जीवन | Mirza Ghalib Shayari

मिर्ज़ा ग़ालिब का व्यक्तिगत जीवन अच्छा नहीं था। इनके 7 औलादें हुईं और बदकिस्मती से सातों की सातों औलादें जन्म के कुछ समय बाद ही अल्लाह को प्यारी होती गयीं।

जिसके ग़म में इन्हे शराब और जुए की लत लग गयी। और इन बुरी लतों ने, मरते दम तक इनका साथ नहीं छोड़ा। इसी वजह से इनकी बीवी के साथ भी इनकी ज्यादा नहीं बनी और घर में लड़ाई कलेश रहता था।

1857 की क्रांति के बाद तो इनकी लाइफ पूरी तरह से बदल गयी। लड़ाई में मुग़लों को अंग्रेज़ों से हार मिली। जिसके बाद अंग्रेज़ो ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया और बहादुर शाह ज़फर को रंगून भेज दिया। जिसके कारण इनका वजीफा बंद हो गया।

फिर इनकी हालत भूखे मरने जैसी हो गयी। जीवन के आखरी दिन तो इस महान शायर ने काफी मुफलिसी और बिमारी में काटे थे।

ग़ालिब की मुहोब्बत के किस्से | Mirza Ghalib Shayari

ग़ालिब साहब का निकाह 13 साल की उम्र में चूका था। और उस उम्र में कहाँ मुहोब्बत और कहाँ मुहोब्बत के किस्से। मगर जैसे जैसे इनकी और इनकी शायरी की उम्र बढ़ी, तो कई जवां दिल इनके और इनकी कलम के लिए धड़कने लगे। जिनमे से कुछ ऐसे थे, जिनके लिए ग़ालिब का दिल भी धड़कने पर मजबूर हो गया।

तवायफ से मुहोब्बत

उन दिनों तफयाब को अच्छी नज़र से देखा जाता है। लोग उनके कोठों पर तहज़ीब सीखने जाया करते थे। “नवाब जान” नाम की एक मशहूर तवायफ हुआ करती थी। जो काफी हसीन थी और जिसके चाहने वालों की कमी नहीं थी। वो कभी मिर्ज़ा ग़ालिब से मिली तो नहीं थी, मगर उनकी ग़ज़लों की दीवानी हो गयी थी।

उसने ग़ालिब साहब को काफी खत लिखे और मिलने को बुलाया। मगर ग़ालिब साहब भी अपनी धुन में रहते थे। उन्होंने जाना तो दूर, कभी नवाब जान के ख़त का जवाब भी नहीं दिया था। मगर एक दिन नवाब जान उन्हें बाजार में मिल गई। और उन्हें अपने कोठे पर आने की ज़िद करने लगी। इस बार ग़ालिब ना नहीं कर पाए।

जब ग़ालिब कोठे पर गए तो नवाब जान ने उन्ही की ग़ज़ल गा कर उनका इस्तकबाल किया। और उस दिन के बाद ग़ालिब उसके दीवाने हो गए। और दोनों इतने क़रीब हो गए की दोनों के दिल एक दूसरे के लिए धड़कने लगे। मगर यह मुहोब्बत ज्यादा लम्बी ना चली। क्योंकि किसी बिमारी की वजह से नवाब जान का निधन हो गया। ग़ालिब ने उसके दर्द में कई नज़्मे लिखीं।

तुर्की महिला से मुहोब्बत

नवाब जान के बाद ग़ालिब को एक बहुत बड़े खानदान की मोहतरमा से मुहोब्बत हो गयी। वो भी एक शायरा थी और शायरी की दोस्ती, मुहोब्बत की दोस्ती में बदल गयी थी। ग़ालिब उसे तुर्की मोहतरमा कहा करते थे। दोनों छुप छुप कर मिला करते थे।

मगर कहाँ छुपते हैं इश्क़ और मुश्क, छिपा ले लाख बंदा चाहे। उनका इश्क़ भी दुनिया की नज़र में आ गया। और बदनामी के डर से उस तुर्की मोहतरमा ने ख़ुदकुशी कर ली। यह ग़ालिब के लिए इश्क़ में दूसरा सदमा था। इसके बाद तो ग़ालिब की शायरी का रंग ही बदल गया। और उन्होंने वो दर्द लिखा, जिसे आज भी महसूस किया जा सकता है।

“दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है

आख़िर इस दर्द की दवा क्या है”

ग़ालिब के आम वाले किस्से | Mirza Ghalib Shayari

मिर्ज़ा ग़ालिब का आमों के साथ गहरा रिश्ता था। आम उन्हें इस कदर पसंद से थे की इनके लिए वो कहीं भी जा सकते थे। वो कहते थे आम के सामने तो गन्ना भी फिक्का है। अब आम से रिश्ता था तो आम के किस्से होना तो लाज़मी है।

मेरे नाम का आम कहाँ है

एक बार मिर्ज़ा ग़ालिब, बहादुर शाह ज़फर के साथ लाल किले में टहल रहे थे। वहां अलग अलग किसम के एक से एक आम के पेड़ थे। जो रसीले आमों से लदे पड़े थे। ना चाहते हुए भी ग़ालिब की नज़रें बार बार आमों पर जा रही थी। बहादुर शाह ने पूछ ही लिया।

“मियां, ये आमों को इतने ग़ौर से क्यों देख रहे हो?”

तो ग़ालिब ने कहा, “हुज़ूर, एक बार किसी शायर ने कहा था कि हर आम पर उसके खाने वाले का नाम लिखा होता है। मैं अपना, अपने बाप दादा का नाम तलाश रहा हूँ। सुन कर बादशाह के चेहरे पर हंसी आ गयी और उन्होंने शाम होते होते, ग़ालिब के घर आमों कि टोकरियां भिजवा दीं।

आधे मुसलमान मिर्ज़ा ग़ालिब

दिल्ली में अंग्रेजी हकूमत ने आते ही मुसलमानो को भागना शुरू कर दिया। जो ना भागते अंग्रेज़ उन्हें पकड़ कर, या तो मार देते या जेल में डाल देते। इसलिए दिल्ली से मुसलमान भाग रहे थे। मगर ग़ालिब साहब को दिल्ली से प्यार था। उन्होंने यहीं रहने का फैंसला किया।

एक दिन उन्हें एक अंग्रेज़ अफसर ने पकड़ लिया तो ग़ालिब बोले, जनाब मुझे छोड़ दें, मैं आधा मुसलमान हूँ। अंग्रेज़ अफसर ने कहा की आधे मुसलमान कैसे हुए तुम? तो ग़ालिब ने तपाक से जवाब दिया, “क्योंकि मैं शराब पीता हूँ लेकिन सूअर नहीं खाता। मिर्ज़ा ग़ालिब का यह जवाब सुन कर अंग्रेज़ अफसर की हंसी छोट गयी और उसने ग़ालिब को भी छोड़ दिया।

गधे आम नहीं खाते

ग़ालिब के एक दोस्त हुआ करते थे, जो आम नहीं खाया करते थे। ग़ालिब अक्सर उन्हें हंस कर कहा करते थे, “मियां, क्या ज़िंदगी है तुम्हारी, जो तुम आम से किनारा करते हो”

वो दोस्त हंस कर कहता, आमों में ऐसा क्या है, जो इन्हे खाया जाये।

एक दीं ग़ालिब अपने उसी दोस्त के साथ बाग़ में बैठे आम खा रहे थे। तभी वहाँ से एक गधा गुज़रा, जिसने पेड़ के नीचे पड़े, आम सूंघे और बिना खाये अग्गे बढ़ गया।

जिसे देख ग़ालिब के दोस्त ने कहा, “देखो मियां, गधे भी आम नहीं खाते”

तो ग़ालिब ने एक दम जवाब दिया, “वही तो मैं कहता हूँ, जो गधे हैं, वो आम नहीं खाते।”

आम कैसे होने चाहिए

एक बार ग़ालिब इक महफ़िल में बैठे हुए थे, जहाँ आमों की अलग अलग किस्मों की बात चल पड़ी। हर किसी ने अपनी पसंद की किस्म और उसकी खासियत बताई। आखिर में ग़ालिब से पूछा गया की मियां, तुम्हे क्या लगता है, आम कैसे होने चाहिए।

तो ग़ालिब मुस्कुराये और बोले, “मेरे दोस्त, मेरी नज़र में आम में दो खासियतों का होना जरूरी है, वो मीठे होने चाहिए, और बहुत सारे होने चाहिए। इस कदर आमों के शौक़ीन थे मिर्ज़ा ग़ालिब।

“मुझसे पूछो तुम्हें ख़बर क्या है”

“आम के आगे नेशकर क्या है”

Mirza Ghalib Shayari

ग़ालिब के अनसुने किस्से | Mirza Ghalib Shayari

Mirza Ghalib Shayari के साथ साथ हाज़िरजवाब भी बड़े थे। उन्हें बस मौका मिलना चाहिए, फिर वो किसी को भी बक्शा नहीं करते थे। यहाँ तक की खुद को भी नहीं। तभी तो शायरी के साथ साथ, उनके किस्से भी पढ़ने वाले हैं।

शाही कवी ज़ौक़ से अनबन

कवी ज़ौक़ बहादुर शाह के ख़ास हुआ करते थे, इसलिए बहादुर शाह ने उन्हें शाही कवी का रुतवा दिया हुआ था, और ग़ालिब हुआ करते थे दरबारी कवी। इसी वजह से उनका ज़ौक़ से छतीस का आंकड़ा था।

एक बार ग़ालिब अपने यारों के छाए कि दूकान पर बैठे हंसी मज़ाक कर रहे थे। तभी वहाँ से ज़ौक़ का काफिला गुज़रा। ग़ालिब से रहा नहीं गया और बोल बैठे, “बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता…

सुन कर ज़ौक़ को गुस्सा आ गया और उसने बादशाह से ग़ालिब की शिकायत करदी। फिर क्या था, ग़ालिब की दरबार में पेशी लग गयी। बादशाह ने पूछा की क्या ज़ौक़ की शिकायत जायज़ है?

तो ग़ालिब ने बड़ी चालाकी से कहा कि हज़ूर, जो ज़ौक़ ने सुना वो उनकी नयी ग़ज़ल का मकता है।

ज़ौक़ ने कहा कि अगर ऐसा है तो पूरी ग़ज़ल सुनाओ…

फिर क्या था, ग़ालिब ने कुछ पल सोचा और कहा…

“बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता,

वगर न शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है”

“हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है,

तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है’”

Mirza Ghalib Shayari

फ़ारसी के उस्ताद बनने वाले थे ग़ालिब

ये उन दिनों की बात है जब ग़ालिब की माली हालत खराब होती जा रही थी और हर दिन वो क़र्ज़ में डूब रहे थे। तो उनके एक कद्रदान अफसर ने उनकी दिल्ली कॉलेज में अध्यापक की न्युक्ति की सिफारिश करदी।

ग़ालिब तो ग़ालिब थे। मुफलिसी में भी पूरी शानोशौक़त से रहा करते थे। तो यहाँ भी जनाब, पालकी पर सवार हो कर, फ़ारसी अध्यापक के पद के लिए इंटरव्यू देने कॉलजे पहुंच गए।

कॉलेज पहुंचने पर ग़ालिब ने देखा की यहाँ तो कोई उनके स्वागत के लिए आया ही नहीं। फिर क्या था, जनाब गुस्से में बिना इंटरव्यू दिए ही वापिस घर लौट आये।

पैर दबाने की मजदूरी

अपने आखरी दिनों में ग़ालिब काफी ज्यादा बीमार थे। उनके शरीर में इस कदर दर्द था की उठना तो दूर, वो बिस्तर पर अच्छे से हिल नहीं पाते थे। ऐसे में एक दिन एक शागिर्द उनके पास आया, और उस्ताद की ऐसी हालत देख कर उनके पैर दबाने लगा।

ग़ालिब ने उसे ऐसा करने से मना किया तो शागिर्द बोला, “अगर आप को बुरा लग रहा है तो आप पैर दबाने की मजदूर दे दीजियेगा। ग़ालिब मान गए।

पैर दबाने के बाद शागिर्द ने अपनी मजदूरी मांगी तो ग़ालिब हँसते हुए बोले, “कैसी मजदूरी मियां, तुमने मेरे पैर दाबे, मैंने तुम्हारी मजदूरी दाबी, हिसाब बराबर”

कहां की वबा, कैसी वबा

यह ग़ालिब के आखरी दिनों की बात है। महामारी फैली हुई थी। लोग घरों में दुबक कर बैठे थे। मगर ग़ालिब साहब से घर ना बैठा गया।

वो घर से निकलने लगे तो घबराई हुई बेगम ने कहा, “कहाँ चले, बाहर तो वबा फैली है?”

इस पर ग़ालिब ने कहा, कहां की वबा, कैसी वबा मैं 71 साल का बूढ़ा और तुम 69 साल की बुढ़िया। दोनों में से एक भी मारा होता तो मान लेते की वबा फैली है।

इस पर बाद में ग़ालिब ने शेर पढ़ा की…

“रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो,

हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बां कोई न हो,

पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार

और अगर मर जाइए तो नौहा-ख़्वां कोई न हो”

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ग़ालिब और शराब के किस्से | Mirza Ghalib Shayari

कहा जाता है की मिर्ज़ा ग़ालिब की सात औलादें हुई और डेड साल से ज्यादा कोई ना जी पायी। ग़ालिब इसी ग़म में शराब पीते थे। गम को दबाने के लिए शराब का सहारा लिया और सहारा ही उनका शौक बन गया। और मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी के साथ साथ, शराब के शौक़ीन बन गए।

ग़ालिब बुरे से बुरे वक़्त में भी महंगी अंग्रेजी शराब पिया करते थे और ख़ास कर मेरठ की वाली फौजी कैंटीन की एक ख़ास शराब ओल्ड टॉम के। जिसे मंगवाने के लिए वो किसी की मिन्नतें भी कर लिया करते थे।

ऐसे ही ग़ालिब के शराब के और भी कई किस्से हैं।

ग़ालिब का शौक

ये ग़ालिब की मुफलिसी के दिनों की बात है। उनकी बसर उधारी पर चल रही थी। एक बार किसी बड़े मुशायरे में ग़ालिब को शिरकत करनी थी, जहाँ से अच्छी खासी कमाई की उम्मीद थी। उनकी बेगम को लगा की चलो कुछ दिन के लिए घर के फाके दूर होंगे।

पर ग़ालिब मिया तो ग़ालिब थे। कमाई हुई और अच्छी खासी हुई। मगर ग़ालिब ने सारे पैसे की शराब मंगवा ली।
इतनी शराब देख कर उनकी बेगम ने सर पे हाथ मारा और पुछा, “अब खाएंगे क्या?”

ग़ालिब मुस्कुराये और बोले, “पेट खुदा ने दिया है, इसे भरने की जिम्मेदारी भी उसी की है, शराब का शौक हमारा है, इस शौक को पूरा करने की जिम्मेदारी तो हमी ने निभानी है।”

शराब का प्यार

कहते हैं एक बार पटियाला घराने के उस समय के राजा महाराजा मोहिंदर सिंह ने ग़ालिब को पटियाला आ कर बसने के लिए कहा। और बदले में उन्हें अच्छी खासी सहूलतें देने की बात कही। ग़ालिब का मन भी बन गया था।

लेकिन एक दिन ग़ालिब को पता चला की पंजाब में शराब बड़ी महंगी है और वहां से मेरठ भी दूर पड़ता है। फिर क्या था, ग़ालिब साहब ने महराजा मोहिंदर सिंह को पंजाब आने से मन कर दिया।

जहाँ खुदा न हो

ग़ालिब का घर हकीमों वाली मस्जिद के नीचे था। वो वहीँ घर में या घर के बाहर पिया करते थे। एक दिन किसी आदमी ने उन से कह दिया, “मियां सामने खुदा का घर है, यहाँ ना पिया करें।”

अब ग़ालिब से रहा नहीं गया। शराब पीने से तो लोग उन्हें रोज़ ही मन किया करते थे। मगर खुदा का नाम ले कर शराब से मन करने वाले यही पहले शख्स थे। तो ग़ालिब ने उन्हें जवाब दिया…

“ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर”

“या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो”

Mirza Ghalib Shayari

जब मांगी थी खुदा से शराब

एक बार ग़ालिब के पास एक भी पैसा नहीं था और उनकी की शराब ख़तम हो गयी। बीवी से पैसे मांगे तो उसने साब इंकार कर दिया। अब करें तो क्या करें। कोई उदार देने वाला भी नज़र नहीं आ रहा था।

ऐसे में उनके किसी खास ने उन्हें सलाह दी की खुदा से मांगो जा कर, तुम्हारी ये मुराद अब खुदा ही पूरी कर सकते हैं। शराब के लिए ग़ालिब कंही भी जा सकते थे। खुदा के घर भी, जहाँ जाना उन्होंने कब का छोड़ दिया था।

उन्हें मस्जिद में देख कर सब हैरान हो गए। खैर, ग़ालिब साहब ने वज्जु के बाद छोटी नमाज ही पढ़ी थी और बड़ी नमाज़ के लिए मौलवी साहब का इंतज़ार हो रहा था।

तभी ग़ालिब का कोई शागिर्द अपने शायरी को ठीक करवाने ग़ालिब साहब के पास पहुंच गया और साथ में शराब की बोतल भी ले आया। जिसे देख ग़ालिब बिना बड़ी नमाज़ पढ़े मस्जिद से निकल लिए, किसी ने पुछा, की बड़ी नमाज़ नहीं पढोगे?”

तो ग़ालिब बोले, “जब छोटी नमाज़ में ही काम हो गया हो, तो बड़ी पढ़ने की क्या जरूरत है।”

“ग़ालिब’ छुटी शराब पर अब भी कभी कभी,

पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में”

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मिर्ज़ा ग़ालिब शायरी | Mirza Ghalib Shayari

यूँ तो ग़ालिब साहब का कोई भी शेर काम नहीं। मगर कुछ शेर हैं जो काफी ज्यादा मकबूल हुए।

“हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले”

“उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है”

“रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है”

“मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले “

“वो आए घर में हमारे खुदा की क़ुदरत हैं,

कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं”

“ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता,

अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता”

“तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान झूठ जाना,

कि ख़ुशी से मर ना जाते अगर एतबार होता”

“कोई उम्मीद बर नहीं आती,

कोई सूरत नज़र नहीं आती”

“दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई,

दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई”

“न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता

डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता”

“आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक

कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक”

“जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे,

क्या खूब क़यामत का है गोया कोई दिन और”

“दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ

मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ”

“कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता”

“मेहरबान हो के बुला लो मुझे चाहे जिस वक़्त,

मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी ना सकूँ”

“कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में,

पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते”

“इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब,

की लगाए ना लगे और बुझाए ना बुझे”

“इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना”

“दर्द मिन्नत काश-ए-दवा ना हुआ,

मैं ना अच्छा हुआ ना बुरा हुआ”

“निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन,

बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले”

“रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए,

धोए गए हम इतने के बस पास हो गए”

“हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद

जो नहीं जानते वफ़ा क्या है”

“बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं ‘ग़ालिब’

कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है”

“इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया

दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया”

Mirza Ghalib Shayari

Conclusion Mirza Ghalib Shayari

इतने बड़े शायर अपने आखिरी दिनों में गुमनामी में जिए, तभी तो उनके मरने कि खबर उनके मरने से दो दिन बाद अख़बारों में छपी थी।

हाँ, ये भी सच है कि ग़ालिब साहब को शराब और जुए कि लत थी। मगर उन से बड़ा शायर ना कोई हुआ है और शायद ना ही कभी होगा। उन्हें सदियों से याद रखा जा रहा है और सदियों तक याद रखा जायेगा।

“हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन

दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है”

Mirza Ghalib Shayari

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